हमारे देश में आंदोलनों का इतिहास काफी पुराना रहा है। अंग्रेज काल से लेकर आज के दौर तक हम सभी अनेक आंदोलनों के गवाह रहे हैं। कांग्रेस से लेकर बीजेपी सरकारों को जनता ने सड़क से लेकर संसद तक घेरने का काम किया है। रेलवे पटरियों पर बैठना, ट्रेनों को रोकना, सड़क जाम करना, ये सारे विरोध जताने के पुराने हथकंडे रहें है। समय-समय पर जनता इसका इस्तेमाल करते आयी है और सभी सरकारें भी अपने अपने तरीके से जवाब देते आयी है। पर बीते कुछ सालों से हमने जो आंदोलनो के प्रति सरकार के रवैये को देखा है समझा है उससे हम सभी आश्चर्यचकित हैं।

CAA-NRC हो या किसान आंदोलन, किसी भी आंदोलन को लम्बे समय तक चलाने में क्या क्या कठिनाई आती है इसका सही आंकलन तो हम आंदोलन के पथ पर पहुंच कर ही लगा सकते हैं। किसी भी आंदोलन को बदनाम कर उसको कमजोर करने का नया अभ्यास जो अपनाया गया है वो अनोखा है। बदलते समय के साथ राजनीति का जो अस्तर गिरा है उससे हम सभी भलीभांति परिचित है। जब CAA-NRC आंदोलन को सड़क पर लड़ा जा रहा था तब उसे मुसलमानो का आंदोलन कह कर समाप्त करने की कोशिश की गयी। तब देश के दूसरे संगठन चुप थे के ये उनका आंदोलन नहीं है अब यही किसानों के साथ हो रहा है। उन्हें कभी खालिस्तानी कहा जा रहा  है तो कभी किसान ही नहीं समझा जा रहा है। वार्ता पर वार्ता हो रहा है पर हल कब निकलेगा कहा नहीं जा सकता है। 

पहले तो सरकार के ऊपर किसी भी आंदोलन का कोई असर नहीं होता या फिर सरकार देखना चाहती होगी के ये कितने तैयारी के साथ आये हैं? महीने तो सिर्फ इस बात में निकल जाते हैं के वार्ता के लिए सरकार के तरफ से कौन आगे आये या फिर इस प्रशिक्षण में के सबसे उपयोगी वार्ताकार कौन होगा? चाहे कुछ भी हो पर सड़क पर चलने वाले यात्रियों को भी समय-समय पर इस समस्या से दुराचार होना पड़ता है। हमेशा हम यही सोचते है के ये मामला हमारा नहीं है पर कभी कोरोना आकर स्वास्थ सेवा की पोल खोलता है कभी बेरोजगारी युवाओ को सड़क पर आने को मजबूर करती है तो कभी महंगाई आम जनता को सड़क पर उतार देती है। किसी न किसी कारण हर वर्ग समस्या झेलने को मजबूर है पर साथ आने को तैयार नहीं।